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बुधवार, जुलाई 22, 2015

क्षणिकाएँ

मेरे हिस्से की धूप मुझे मिल रही है,
मेरी परछाईं ने बताया मुझे ।
मेरे हिस्से की ज़मी मिल रही है मुझे,
मेरे कदमों के निशाँ ने जताया मुझे ।
फिर क्या ढूंढ रहा हूँ मैं,
ऊलझे मन ने कुछ न समझाया मुझे ।  
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सड़क सिखाओ मुझे,
कैसे हर बार तुम मंजिल तक पहुँच जाती हो?
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ग़म में डूबना,
खुशियों में आसमान पर उडना,
ऐ ज़मीन, तेरा ज़िक्र कहाँ?
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सोने को मिट्टी के मोल बेचता हूँ,
मैं ज़मीर बेचता हूँ । 
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एक ही आईना काफी है मेरा अक्स दिखाने के लिए,
टूट गया तो कई अक्स में बिखर जाऊँगा ।
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मंदिर और मज़ार पर मन्नत् मानता हूँ,
पक्का सौदाग़र हूँ मैं।
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अनुरोध "संदर्भ"

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