हमारे
शहर और गाँव के नाम चंद पंक्तियाँ...
आसमां
का रंग चुनूँ , ताज़ा
हवा में सांस लूँ,
पर
शहर इसकी इजाज़त नहीं देता।
अपनी
मासूमियत बरक़रार रखूं ,
इंसानियत को
जियूं,
पर
शहर इसकी इजाज़त नहीं देता।
हर
शख्श को दोस्त बनाऊं,
दिल से दिल
मिलाऊँ,
पर
शहर इसकी इजाज़त नहीं देता।
दौड़
रहा है सुबह से शाम तक,
रुक कर देख ले
दिशा अपनी,
पर
शहर इसकी इजाज़त नहीं देता।
सब
बोल रहे हैं , कोई
तो सुने किसी को,
पर
शहर इसकी इजाज़त नहीं देता।
पर शहर इसकी इजाज़त नहीं देता।
जमीं
जो छोड़ कर आ गए गांव में,
वापस मुड़ कर
चल दूँ उस ओर,
पर
गाँव इसकी इजाज़त नहीं देता।
अनुरोध
'सन्दर्भ'
सच कहा ... शहर की धूल ने गांव की मिट्टी और महकते रिश्तों को अपने दागदार दामन से यूं ढक लिया कि अब तो हर शख्स नकाबपोश नज़र आता है!
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