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रविवार, दिसंबर 07, 2014

वह

बहुत  बोलता था,
हमेशा चुप रहता था वह।

मिलकर एक दोस्त से खुश था,
अपने  आप से मिला था वह।

कितना शोर था घर में,
घर पर  अकेला था वह।

हर अहम् बेमानी हो गया,
प्यार को पहचाना था वह। 

मुद्दत बाद सुबह जागा,
रात चैन से सोया था वह।

चलता रहा , दौड़ता रहा, थकता रहा,
वहीँ पर खड़ा रहा वह।

ऊब गया दूसरों को देखते देखते 'सँदर्भ ',           
 आइना देखने लगा वह।

अब नहीं देखता राह की तरफ,
एक दरिया की मानिंद बहने लगा वह।

अनुरोध 'सँदर्भ '


रविवार, अक्टूबर 19, 2014

मैं जेल में हूँ।

हम में  से बहुत लोग इस सत्य से अनजान हैं कि, इस जीवन का चुनाव हमने किया है।  आत्मा की यात्रा हमने चुनी है और, हम और सिर्फ हम ही सभी अनुभवों के लिए उत्तरदायी हैं।  हम ही अपने आप का अनुभव बदल सकते हैं, जो हमारी अजर अमर आत्मा का सच्चा सात्विक स्वरुप पहचानने मे सहायक होगा और,  पुनः हमको हमारे  निर्मल स्वरुप से एकाकार कर के हमको उच्चतम  आनंद की प्राप्ति कराएगा ।
इस कविता मे इस भाव को ही व्यक्त किया है।

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मैं बंद हूँ एक जेल में, जिसे मैने ही चुना है,
मैं ही अपराधी हूँ, एक जघंन्य अपराधी,
जो अपराधी है अपने प्रति, अनगिनत अपराधों का।   

मैं ही न्यायाधीश हूँ,  कठोर भावना शून्य न्यायाधीश,
आँखों पर पट्टी बाँध कर, कठोर दंड सुनाता है जो,
जन्म जन्मान्तर के लिए,  अपराध के लिए।

मैं ही जेलर हूँ इस जेल का, कठोर हृदय और कर्तव्यपरायण,
जानता है जो पालन कराना  दंड का, हर हाल में,
कठोर, निर्मम, भाव शून्य हो कर।



अनगिनत अपराध, अनगिनत दंड, जन्म जन्मान्तर की जेल,
करना चाहता हूँ क्षमा याचना, न्यायाधीश से,
आना चाहता हूँ बाहर, स्वतन्त्र होना चाहता हूँ मैं।





न्यायाधीश कुछ पिघला है, मुझे फिर से सुन रहा है,
कई दंड पूरे हो गए हैं, कई पर सुनवाई हो  रही है,
हर पूरे दंड के लिए, जेलर मुझको थोड़ी स्वतंत्रता  प्रदान करता  है, जेल मे घूमने की।


जेलर  ने बताया मुझको,  सभी दंड  होंगे पूरे,
स्वत्रन्त्र हो जाओगे तुम, भरोसा रखो, तुम अपील करते रहो, हार मत मानो
 न्यायाधीश तुमको प्यार करता है, वह क्षमा कर देगा तुमको, हर अपराध के लिए।


दीपावली के पावन पर्व पर ईश्वर से प्रार्थना करें की कर्म रुपी जेल से हमारी आत्मा को मुक्ति मिले।
दीपावली आप एवं आपके समस्त परिवार के लिए शुभ हो। 






अनुरोध "सन्दर्भ"
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सोमवार, सितंबर 29, 2014

सड़क

मेरे जीवन का अभिन्न अंग है ,
हर पल मेरे साथ रही, सच्चे मित्र की तरह, सड़क।  


माँ लाई थी अस्पताल से घर तक मुझको,
जन्म से यात्रा में साथ है, सड़क।

धीरे धीरे बड़ा होने लगा, लड़खड़ा कर चलने लगा,
मेरे पहले पग की साक्षी है, सड़क।


 घर से दफ्तर, और दफ्तर से घर,
प्रतिदिन संसार से मुझको  मिलाती, सड़क।        

कभी समर्थन, कभी विरोध,
हर बात पर जाम की जाती, सड़क।


धुंधली दृष्टि, फिर भी याद है मुझको,
घर तक कौन सी ले जाती, सड़क।

जानता  हूँ बफ़ादार है यह,
अंतिम यात्रा में भी साथ होगी, सड़क।


अनुरोध "सन्दर्भ"

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शुक्रवार, सितंबर 19, 2014

आओ एक समझौता करें...

आओ एक समझौता करें,
थोड़ा तुम चलो थोड़ा मैं ,
धीरे धीरे हम नज़दीक आएंगे,
चेहरे कुछ साफ़ नज़र आएंगे,
कहते हैं चेहरा मन का आइना होता है,
आइना झूट नहीं बोलता, हम देखेंगे एक दूसरे का सच,
समझ सकेंगे कुछ ज्यादा एक दूसरे को।

आओ एक समझौता करें,
थोड़ा तुम मुस्कुराओ थोड़ा मैं ,
कहते हैं होठों के इस खिचाव में मौन संवाद है,
संवाद पुल है मेरे और तुम्हारे मन के बीच का,
स्थापित करें इसे, मजबूत करें इसके किनारों को।

आओ एक समझौता करें,
प्रेम की भाषा कुछ तुम बोलो कुछ मैं ,
कहते हैं प्रेम की भाषा सब समझते हैं,
आओ समझे एक दूसरे को ,
इंसान होने का फ़र्ज़ निभाए।


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